अगस्त 2011
पिछली 29 अगस्त
को मानेसर स्थित मारुति सुजुकी के कारखाने में सुबह की शिफ्ट के मज़दूर
जब काम पर पहुँचे तो गेट को लोहे की चादरों से सील कर दिया गया था और
बाहर लगाए गए नोटिस बोर्ड पर दस मज़दूरों की बर्खास्तगी और ग्यारह के निलंबन
का नोटिस लगा हुआ था। कम्पनी ने शर्त लगा दी थी कि जो मज़दूर ”अच्छे आचरण
के शपथपत्र” पर हस्ताक्षर नहीं करेगा वह फैक्ट्री के अन्दर
नहीं जा सकेगा। इस शपथपत्र में लिखा था कि अगर कोई
मज़दूर किसी भी प्रकार काम धीमा करने, वर्क
टू रूल, हड़ताल, या
किसी भी अन्य प्रकार के काम रोकने वाली गतिविधि
में लिप्त पाया गया तो उसे बर्खास्त किया जा सकता है।
इस सरासर ग़ैर-क़ानूनी
शपथपत्र पर हस्ताक्षर करने का मतलब है अपनी आज़ादी को पूरी तरह
से मैनेजमेण्ट के हाथों में गिरवी रख देना। मैनेजमेण्ट जब चाहे किसी भी मज़दूर
को उत्पादन को नुकसान पहुँचाने का दोषी ठहराकर बर्खास्त कर सकता है।
मारूति के सभी मज़दूरों ने जबर्दस्त एकजुटता का परिचय देते हुए इस काले कागज़
पर हस्ताक्षर करने से साफ़ इन्कार कर दिया और फैक्ट्री गेट पर धरने पर
बैठ गये। ‘मज़दूर बिगुल’ का यह
अंक प्रेस में जाने तक अवैध तालाबन्दी जारी
थी, कुल 49 मज़दूरों
को बर्खास्त या निलम्बित किया जा चुका था और इसके ख़िलाफ
मज़दूर संघर्ष में डटे हुए थे।
पिछले 4 से 16
जून
तक चली मारुति की हड़ताल के बाद हुए समझौते में 11 बर्खास्त मज़दूरों
को काम पर वापस लेने के लिए मैनेजमेण्ट को बाध्य कर देने को ही मज़दूर
अपनी जीत समझ रहे थे और तमाम बड़ी यूनियनें भी इसे इसी रूप में पेश कर
रही थीं। लेकिन जैसाकि ‘मज़दूर बिगुल’ के
अंकों में हमने पहले भी लिखा था, उस
जुझारू हड़ताल के मूल मुद्दों पर समझौते में कोई बात नहीं थी। मैनेजमेण्ट
ने समझौते के बाद से ही मज़दूरों को तंग करने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे
अपनाने शुरू कर दिये थे। 28 जुलाई को, चार
अगुवा मज़दूरों को झूठे आरोप लगाकर बर्खास्त कर दिया गया जिसका
मज़दूरों ने कड़ा विरोध किया। इसके पहले
से ही कम्पनी ने आसपास के भाड़े के गुण्डों को सिक्योरिटी गार्डों के रूप
में भर्ती करना शुरू कर दिया था और सुपरवाइज़रों तथा मैनेजरों के ज़रिये
मज़दूरों को उकसाने और फिर उन पर कार्रवाई करने की तिकड़में शुरू कर दी
थीं। जून से लेकर अगस्त के बीच 84 कैजुअल और ट्रेनी मज़दूरों
को किसी न किसी बहाने निकाला जा चुका था।
जून की हड़ताल
के समय अपनी स्वतन्त्र यूनियन गठित करने की माँग मुख्य माँग थी। इसके
साथ ही, मानेसर
परिसर में लग रहे नये प्लाण्ट में नयी भर्ती न करके कई-कई
साल से काम कर रहे ट्रेनी और कैज़ुअल मज़दूरों को नियमित करने तथा वेतन, इन्सेंटिव, और
काम की परिस्थितियों से जुड़ी अन्य माँगें शामिल थीं। इनमें
से किसी भी माँग पर समझौता नहीं होने के कारण यह तो तय था कि देर-सबेर
मज़दूरों को फिर से संघर्ष के रास्ते पर उतरना होगा। लेकिन मारुति के
मज़दूरों को यह अनुमान नहीं था कि मैनेजमेण्ट इतनी
जल्दी और इस तरह जवाबी हमला करेगा।
एक-एक मिनट निचोड़ डालने के जापानी नुस्खे
मानेसर कारखाने
की उत्पादन क्षमता प्रतिदिन 1200 कारों की है जबकि मज़दूरों
को प्रतिदिन 1400-1470 कारों
का उत्पादन करना पड़ता है। उन्हें साँस लेने के लिए
भी एक मिनट की फुर्सत नहीं मिलती। हर मज़दूर एक शिफ्ट में करीब 600
कारों
पर काम करता है। हर कार पर एक मज़दूर को 45 सेकण्ड
काम करना पड़ता है, यान
आठ घण्टे की शिफ्ट में दिनभर में कुल-मिलाकर साढ़े सात घण्टे। उन्हें
बीस मिनट का लंच ब्रेक और 7-7 मिनट के दो टी-ब्रेक मिलते
हैं। इसी समय में मज़दूरों को चाय-नाश्ते के साथ-साथ
टॉयलेट भी होकर आना पड़ता है। एक
मिनट की देरी होने पर भी इलेक्ट्रॉनिक अटेण्डेंस मशीन से आधे दिन की तनख्वाह
कट जाती है। उन्हें कोई कैज़ुअल लीव या बीमारी की छुट्टी नहीं मिलती।
अगर कोई मज़दूर बिना मज़दूरी के एक दिन की छुट्टी ले ले तो उसके
1500 रुपये कट जाते हैं, दो
दिन की छुट्टी लेने पर 2200 और तीन दिन की छुट्टी
लेने पर 7000
रुपये
तक काटे जा सकते हैं। लेकिन अगर मज़दूर छुट्टी के
दिन ओवरटाइम करता है तो उसे सिर्फ 250 रुपये
मिलते हैं। हर साल सैकड़ों करोड़
मुनाफा कमाने वाली कम्पनी में मज़दूरों को ढंग की स्वास्थ्य सुविधाएँ तक
नहीं मिलतीं। फैक्ट्री की डिस्पेंसरी में दर्द और बुखार की कुछ पेटेण्ट दवाओं
के सिवा कुछ नहीं मिलता। सुरक्षा उपकरणों में लगातार कटौती की जाती है।
यहाँ तक कि दस्ताने पुराने हो जाने पर मज़दूरों को उन्हें ही उलट कर पहनना
पड़ता है जिससे अक्सर ही एलर्जी आदि होती रहती है। मानेसर के मज़दूरों
को मिलने वाली तनख्वाह उसी काम के लिए गुड़गाँव संयंत्र के मज़दूरों
के मुक़ाबले काफी कम होती है जबकि यहाँ उनसे ज़्यादा तेज़ रफ़्तार पर
काम कराया जाता है। मज़दूरों पर काम का दबाव बहुत अधिक होता है। चारों ओर
लगे कैमरों (टॉयलेट और कैण्टीन में भी) के ज़रिये उन पर लगातार निगाह रखी
जाती है कि कहीं वे एक मिनट भी सुस्ता तो नहीं रहे।
मानेसर संयंत्र
में लगभग 1000 नियमित मज़दूरों के अलावा करीब 750
ट्रेनी
और लगभग
2000 ठेका मज़दूर भी काम करते हैं। सभी मज़दूरों को तीन वर्ष की
ट्रेनिंग अवधि से गुज़रना पड़ता है जिस दौरान कोई भी
श्रम क़ानून लागू नहीं होता। इस अवधि
के बाद उन्हें वर्दी मिलती है और नियमित कर दिया जाना चाहिए लेकिन बहुत
से ट्रेनी मज़दूर तीन साल बीत जाने के बाद भी ट्रेनी ही बने रहते हैं। ठेका
मज़दूरों की दशा तो और भी बुरी है। वे बमुश्किल 4500-6000 कमा
पाते हैं और उन्हें लगातार ओवरटाइम करना पड़ता है
जिससे वे इन्कार नहीं कर सकते। पिछले
कुछ वर्षों के दौरान कारों के मॉडल और उत्पादित कारों की संख्या बढ़ती
गयी है लेकिन मज़दूरों की संख्या नहीं बढ़ी है।
इन्हीं परिस्थितियों
के ख़िलाफ आवाज़ उठाने के लिए मारुति के मज़दूरों ने अपनी स्वतन्त्र
यूनियन ‘मारुति
सुजूकी इम्प्लायज़ यूनियन’ का गठन किया क्योंकि गुड़गाँव
संयंत्र में आधारित मैनेजमेण्ट-परस्त ‘मारुति
उद्योग कामगार यूनियन’ उनके
मुद्दों को नहीं उठाती थी। मैनेजमेण्ट ने यूनियन को मान्यता देने
से साफ़ इन्कार कर दिया और मज़दूरों से इस आशय के शपथपत्र पर हस्ताक्षर
कराने शुरू कर दिये कि वे नयी यूनियन में शामिल नहीं होंगे। इसी के
विरोध में मज़दूर जून में हड़ताल पर चले गये थे।
आन्दोलन को स्पष्ट दिशा देने की ज़रूरत
मारुति के मज़दूर
भरपूर जोशो-ख़रोश और एकजुटता के साथ आन्दोलन में डटे हुए हैं। लेकिन दूसरी
ओर ऐसा भी लगता है कि पिछले जून की हड़ताल से ज़रूरी सबक नहीं सीखे गये
हैं। बिगुल मज़दूर दस्ता की टीम पहले दिन से ही मारुति के मज़दूरों के आन्दोलन
में उनके साथ शिरकत करती रही है। इस दौरान अपने अनुभवों के आधार पर हम
नेतृत्व के साथियों और मज़दूरों से लगातार इन मुद्दों पर बात करते रहे हैं।
यह साफ़ है कि
मैनेजमेंट ने पूरी योजना और तैयारी के साथ यह हमला किया है। लेकिन मज़दूरों
की ओर से इसकी जवाबी कार्रवाई में योजनाबद्धता, स्पष्ट
दिशा, तेज़ी
और अपनी ताक़त का उचित इस्तेमाल करने की क्षमता की कमी दिखाई देती है।
इतने दिन बाद भी आन्दोलन की कोई स्पष्ट योजना और कार्यक्रम नहीं है।
दरअसल, संघर्ष
को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देख पाने के कारण मज़दूरों के लिए यह समझना
मुश्किल है कि उनकी लड़ाई लम्बी और कठिन है। अधिकांश मज़दूर इस बात को
नहीं समझ पा रहे कि यह सब यूनियन गतिविधियों को सुनियोजित ढंग से ख़त्म करने
की कोशिश का हिस्सा है जिसमें राज्य सरकार पूरी तरह से कम्पनी के साथ है।
भूमण्डलीकरण के दौर की नीतियों के तहत पूरे देश और दुनियाभर में यूनियन अधिकारों
पर बढ़ते हमलों और मन्दी तथा बढ़ती होड़ के कारण कम्पनियों पर लागत
कम करने के दबाव के परिप्रेक्ष्य में भी वे इन कार्रवाइयों को नहीं देख
पा रहे। पिछली हड़ताल के समय ही हरियाणा के मुख्यमन्त्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा
ने सुज़ुकी कम्पनी के सीईओ को आश्वासन दिया था कि एक कम्पनी के भीतर
दो यूनियनें नहीं बनने दी जायेंगी। सरकार के इशारे पर ही श्रम विभाग ने एक
बेबुनियाद तकनीकी आपत्ति उठाकर अगस्त में यूनियन के पंजीकरण का आवेदन खारिज
कर दिया। इस आन्दोलन के दौरान सुज़ुकी के जापानी चेयरमैन
ओसामू सुज़ुकी ने तो धमकी भरे स्वर में कहा कि
अनुशासन के मसले पर कोई समझौता नहीं
किया जाएगा। इन बयानों के अगले ही दिन गुड़गाँव की उपश्रमायुक्त ने एकदम
मैनेजमेण्ट की भाषा में कहा कि ‘गुड कण्डक्ट बॉण्ड’ नियमों
के अनुसार सही है और अगर मज़दूर काम पर जाना चाहते हैं तो
उन्हें इस पर हस्ताक्षर करना ही होगा। हरियाणा सरकार शुरू से ही
मैनेजमेण्ट के साथ पूरी नंगई से खड़ी
थी। तालाबन्दी के पहले वाली शाम से ही क़रीब 300 पुलिसकर्मी
कारखाना परिसर में तैनात कर दिये गये थे। सरासर अवैध
तालाबन्दी के 15 दिन बीत जाने पर भी
सरकार ने इसे खत्म कराने की कोई कोशिश नहीं की। इसके बाद भी तमाम केन्द्रीय
ट्रेडयूनियनों के नेताओं ने मज़दूरों को यह अहसास दिलाने की कोई कोशिश
नहीं की कि उनकी लड़ाई आसान नहीं है और गरम-गरम भाषणों से उन्हें भरमाने
और झूठे सब्ज़बाग दिखाने में लगे रहे।
लम्बे समय तक
मैनेजमेंट के झुकने या हुड्डा सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने का इन्तज़ार किया
जाता रहा। लेकिन अगर दुनिया में, खासकर जापानी मैनेजमेंट वाली कम्पनियों
के अनुभव को देखें तो साफ़ हो जाता है कि मज़दूरों के लिए कामयाबी
का एकमात्र रास्ता एकजुट संघर्ष का रास्ता ही होता है।
क़ानूनी पक्ष
मज़बूत होने के बावजूद यूनियन की ओर से क़ानूनी लड़ाई की भी कोई कोशिश नहीं
की गयी। कई दिनों तक सरकार को कोई ज्ञापन भी नहीं सौंपा गया था।
आन्दोलन के समर्थन
में प्रचार करने के दौरान हमने ख़ुद देखा है कि गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा
से लेकर भिवाड़ी तक के मज़दूर तहेदिल से इस लड़ाई
के साथ हैं। लेकिन उन्हें साथ लेने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है। जून
की हड़ताल की ही तरह इस बार भी व्यापक मज़दूर आबादी को आन्दोलन से जोड़ने
का कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। मारुति के आन्दोलन में उठे मुद्दे
गुड़गाँव के सभी मज़दूरों के साझा मुद्दे हैं — लगभग
हर कारखाने में अमानवीय वर्कलोड, जबरन
ओवरटाइम, वेतन
से कटौती, ठेकेदारी, यूनियन
अधिकारों का हनन और लगभग ग़ुलामी जैसे माहौल में काम
कराने से मज़दूर त्रस्त हैं और समय-समय
पर इन माँगों को लेकर लड़ते रहे हैं। बुनियादी श्रम क़ानूनों का भी
पालन लगभग कहीं नहीं होता। इन माँगों पर अगर मारुति के मज़दूरों की ओर से
गुडगाँव-मानेसर और आसपास के लाखों मज़दूरों का आह्नान किया जाता और केन्द्रीय
यूनियनें ईमानदारी से तथा अपनी पूरी ताक़त से उसका साथ देतीं तो एक
व्यापक जन-गोलबन्दी की जा सकती थी। इसका स्वरूप कुछ भी हो सकता था — जैसे, इसे
एक ज़बर्दस्त मज़दूर सत्याग्रह का रूप दिया जा सकता था।
पूरे इलाक़े
के मज़दूरों के मौन समर्थन को संघर्ष की एक प्रबल शक्ति में तब्दील करने
के लिए सक्रिय प्रयासों और योजना की ज़रूरत है। बीच-बीच में किये गये एकाध
कार्यक्रमों और अख़बारी बयानों मात्र से यह समर्थन कोई मज़बूत ताक़त नहीं
बन सकता। हैरानी की बात है कि इतने लम्बे चले आन्दोलन के दौरान आम मज़दूर
आबादी को आन्दोलन से जोड़ने के लिए एक भी पर्चा या पोस्टर तक नहीं निकाला
गया। आम मज़दूर आबादी आन्दोलन के बारे में उतना ही जानती है जितना अख़बारों
या टीवी द्वारा बताया जा रहा है। भारी संसाधनों से लैस तमाम केन्द्रीय
यूनियनें अगर एक पर्चा या पोस्टर तक नहीं निकाल सकतीं तो यह सवाल उठना
स्वाभाविक है कि वे आन्दोलन को व्यापक बनाना ही नहीं चाहतीं।
मारुति का नेतृत्व
भी आम मज़दूरों को निर्णयों में भागीदार बनाने और उनके जोश और सक्रियता
का पूरा इस्तेमाल कर पाने में पीछे रहा है। हज़ारों युवा मज़दूरों को
लेकर जन गोलबन्दी और प्रचार के विभिन्न रूपों का इस्तेमाल किया जा सकता था।
लेकिन अक्सर वे बिना किसी योजना के बैठे रहते हैं। आम मज़दूरों को इस बात
की पूरी जानकारी ही नहीं होती कि आगे संघर्ष का क्या कार्यक्रम है। ट्रेड
यूनियन जनवाद के उसूलों को जब तमाम वामपन्थी यूनियनें भी ताक पर धर चुकी
हैं तो बाकी मज़दूरों को भला वे क्या सिखायेंगे?
आन्दोलन के पक्ष
में दबाव बनाने के लिए देश के विभिन्न मज़दूर संगठनों, यूनियनों
और नागरिक समाज से सम्पर्क करने का कोई भी
सुनियोजित प्रयास नहीं किया गया। देश
और दुनिया की तमाम ऑटोमोबाइल यूनियनों आदि से भी संपर्क किया जाता तो मैनेजमेंट
और सरकार पर दबाव बनाया जा सकता था।
इस स्थिति के
लिए सबसे अधिक ज़िम्मेदार वे कथित ”वाम” यूनियनें
हैं जो आन्दोलन का नेतृत्व हथियाने के लिए आपस में होड़ा-होड़ी तो
करती हैं लेकिन इसे कोई दिशा नहीं दे सकतीं। मज़दूरों के बीच राजनीतिक
प्रचार के काम को तो ये बहुत पहले
ही तिलांजलि दे चुकी थीं और अब तो कोई जुझारू आर्थिक संघर्ष करने के काबिल
भी नहीं रह गयी हैं। उनका सबसे बड़ा काम है, कुछ
गरम-गरम जुमलेबाज़ियों के बाद मज़दूरों के गुस्से पर
पानी के छींटे डालना और किसी भी
आन्दोलन को जुझारू और व्यापक होने से रोककर किसी-न-किसी समझौते में ख़त्म
करा देना।
आन्दोलन अभी
जारी है और मज़दूरों का दबाव बना हुआ है कि इसे व्यापक और जुझारू बनाया जाये।
उन्हें लगातार सतर्क और सक्रिय रहक़र यह सुनिश्चित करना होगा कि इस बार
उनकी लड़ाई महज़ ”फिर से भीतर जाने की लड़ाई” बनकर
न रह जाये बल्कि यूनियन के अधिकार और कैज़ुअल एवं ट्रेनी सहित
सभी मज़दूरों की समस्याओं पर भी
ठोस बातचीत हो।
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